हैदराबाद एनकाउंटर सवालों के घेरे में पुलिस की भूमिका पर उठे सवाल

देश भर में यह चर्चा का विषय बना हैदारबाद एनकाउंटर
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पुलिस
हैदराबाद में एक बहुचर्चित रेप कांड के आरोपियों को पुलिस द्वारा एनकाउंटर में मार देने की पूरे देश में चर्चा हो रही है. सुप्रीम कोर्ट के एक पैनल ने इस एनकाउंटर को अब फर्जी करार दिया है. जिससे अब पुलिस की भूमिका ओर जांच प्रणाली पर सवाल उठे है.

दिल्ली - हैदराबाद में रेप पीड़िता के आरोपियों का पुलिस द्वारा एनकाउंटर कर दिया गया था जिस पर अब देश भर में सवाल उठ रहे है. साल 2019 में एक महिला वेटनरी डॉक्टर की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गयी थी. चार आरोपियों को पुलिस ने एनकाउंटर में उसी स्थान पर मार गिराने का दावा किया था. लेकिन हाल में इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित पैनल ने फर्जी करार दिया है. साथ ही इसमें शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का केस चलाने की सिफारिश भी की है. पैनल ने कहा कि पुलिस के दावे विश्वास योग्य नहीं हैं और मौके पर मिले सबूत भी इनकी पुष्टि नहीं करते. वह युवती हैदराबाद के पास शमशाबाद में 27 नवंबर, 2019 को टू-व्हीलर का टायर पंक्चर होने के बाद एक टोल प्लाजा के पास इंतजार कर रही. वहां से उसका अपहरण कर दुष्कर्म किया गया, फिर उसकी हत्या कर दी गयी थी.

 

उसका जला हुआ शव अगले दिन मिला था. यह मामला सुर्खियों में रहा था और पुलिस की कड़ी आलोचना हो रही थी. पुलिस ने दावा किया था कि सीन रिक्रिएट करने के लिए वह आरोपियों को लेकर मौके पर पहुंची थी. इसी बीच आरोपी उनके हथियार छीन कर भागने की कोशिश करने लगे जिसके कारण एनकाउंटर हुआ और सभी अभियुक्त मारे गये. एनकाउंटर के जरिये ‘तत्काल न्याय’ से न्याय प्रणाली पर देशव्यापी बहस छिड़ गयी थी.
तब कुछ लोग इस एनकाउंटर की प्रशंसा कर रहे थे तो अनेक लोग इसकी आलोचना भी कर रहे थे और उस पर सवाल उठा रहे थे. घटनाक्रम से साफ नजर आ रहा था कि एनकाउंटर में झोल है. अगर आपको याद हो, तो स्थानीय लोग घटनास्थल पर पहुंच गये थे. कुछ लोग पुलिस पर फूल बरसाते भी नजर आये थे. अनेक जगह मांग उठने लगी थी कि दुष्कर्म के अभियुक्तों को हैदराबाद की तरह ‘न्याय’ प्रदान कर दिया जाए.
इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसे एनकाउंटर हमारी पूरी न्याय व्यवस्था पर संकट उत्पन्न कर सकते हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब भी देना जरूरी है कि क्या दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध की शिकार बेटी को तुरंत न्याय मिलने का अधिकार नहीं है? दरअसल, लोगों का यह रुख न्याय प्रणाली को लेकर हताशा से उपजा है. बड़ी संख्या में लोगों का इसके पक्ष में आना सामाजिक व्यवस्था की विफलता का भी संकेत है.
इसमें धीमी चाल से चलने वाली अदालतें, कार्रवाई में सुस्ती बरतने वाली पुलिस, कड़े कानून बनाने में विफल जनप्रतिनिधि और ऐसी घटनाओं को रोकने में विफल समाज, सभी बराबर के दोषी हैं. ऐसे एनकाउंटर को किसी भी स्थिति में जायज नहीं ठहराया जा सकता है. ऐसी चिंताजनक खबरें भी आ रही हैं कि अपराधी सबूत मिटाने की गरज से दुष्कर्म पीड़िता को जला दे रहे हैं, लेकिन परिस्थितियां जो भी हों, आप कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते.
अगर न्याय से पहले ही अभियुक्तों को मार दिया जायेगा, तो फिर अदालत, पुलिस और कानूनी प्रणाली का क्या मतलब है? एनकाउंटर पर लोग जश्न जरूर मना रहे थे, पर यह हमारी विधि व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है. त्वरित न्याय अदालतों को अप्रासंगिक बना देगा, किंतु हमें दूसरे पक्ष को भी समझना होगा. न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने पर चिंतन करना होगा.
आंकड़ों से शायद हमें लोगों की हताशा को समझने में मदद मिले. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2020 में दुष्कर्म के प्रतिदिन औसतन करीब 77 मामले दर्ज किये गये. उस साल पूरे देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 3,71,503 मामले दर्ज हुए थे. ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2012 में निर्भया कांड के बाद रेप के खिलाफ कानून को सख्त किये जाने के बावजूद सजा की दर कम हुई है.
ये घटनाएं बताती हैं कि हमने महिलाओं का सम्मान करना बंद कर दिया है. बच्चियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म, यौन शोषण और छेड़छाड़ के बड़ी संख्या में मामले इस बात की पुष्टि करते हैं. दरअसल, यह केवल कानून व्यवस्था का मामला भर नहीं है. यह हमारे समाज की सड़न का प्रकटीकरण भी है.
न्याय में देरी अन्याय है- न्याय के क्षेत्र में अक्सर इस सूत्र वाक्य का प्रयोग होता है. इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है, लेकिन इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो, तो ऐसे न्याय की सार्थकता नहीं रहती है. अब नजर डालें निर्भया मामले पर, जिसने पूरे देश को हिला कर रख दिया था. दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 की रात 23 साल की पैरामेडिकल की छात्रा निर्भया के साथ चलती बस में बहुत ही बर्बर तरीके से सामूहिक दुष्कर्म किया गया था.
इस जघन्य घटना के बाद पीड़िता को बचाने की हरसंभव कोशिश की गयी, लेकिन उसकी मौत हो गयी. दिल्ली पुलिस ने बस चालक सहित छह लोगों को गिरफ्तार किया था, जिनमें एक नाबालिग भी था. उस नाबालिग को तीन साल तक सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया, जबकि एक आरोपी राम सिंह ने जेल में खुदकुशी कर ली थी.
फास्ट ट्रैक कोर्ट ने सितंबर, 2013 में इस मामले में चार आरोपियों पवन, अक्षय, विनय और मुकेश को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनायी थी. मार्च, 2014 में हाइकोर्ट और मई, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले पर मुहर लगा दी. बावजूद इसके गुनहगारों को लंबे समय तक सजा नहीं मिली. सुनवाई के दौरान निर्भया की मां ने कोर्ट से कहा था- मेरे अधिकारों का क्या? मैं भी इंसान हूं, मुझे सात साल हो गये, मैं हाथ जोड़ कर न्याय की गुहार लगा रही हूं.
इस घटना को लेकर व्यापक जन आक्रोश को देखते हुए तत्काल जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी थी और रेप कानूनों में बदलाव कर कड़ा किया गया था. दुष्कर्म के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित किये जाने की व्यवस्था की गयी थी. दिल्ली जेल नियमों के अनुसार एक ही अपराध के चारों दोषियों में से किसी को भी तब तक फांसी नहीं दी जा सकती, जब तक कि अंतिम दोषी दया याचिका सहित सभी कानूनी विकल्प नहीं आजमा लेता.
सभी दोषी एक-एक कर अपने विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे थे और व्यवस्था की कमजोरी का फायदा उठा रहे थे. सात साल से अधिक समय के बाद अभियुक्तों को फांसी हुई. इसका दूसरा पहलू यह है कि इससे आम आदमी के जहन में पूरी कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े हो जाते हैं और लोग 'त्वरित' न्याय के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. यह स्थिति किसी भी समाज के लिए अच्छी नहीं है. न्याय सभी के लिए समान है ।

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