साल 1980 का वो कांड जिसमे पुलिस वालों ने 33 कैदियों की आंखों में डाला था तेज़ाब

दिल्ली - साल 2003 में प्रकाश झा के निर्देशन में एक मूवी आई थी 'गंगाजल' जिसमे अजय देवगन बिहार के तेज़पुर जिले के एसपी बने थे। सभी को याद है!..भई! याद भी क्यों न हो क्योंकि अपराधियों के आताताई कारनामों से परेशान होकर आख़िर में पुलिस व जनता ने मिलकर अपराधियों की आंखों को फोड़कर उसमे तेज़ाब डालकर जो इंसाफ़ किया वो सभी को पसंद आया था। सिनेमाघर ताली से गूंज उठे थे। आपको पता ही है कि फिल्में समाज का आईना होती है यानी जो घटनाएं घटित हो चुकी हैं या हो रही हैं उनको ही पर्दे पर दिखाया जाता है। 'गंगाजल' मूवी भी समाज का आईना बनी थी क्योंकि साल 1980 में बिहार के भागलपुर जिले में 33 अंडरट्रायल कैदियों की तथाकथित पुलिसकर्मियों ने टकवे यानी बर्फ़ फोड़ने वाला औज़ार, से आंखे फोड़कर तेज़ाब डालकर अंधा कर दिया था। कैदियों की तस्वीरें जब अखबार में छपी तो पूरा देश हैरान हो गया था।
क्या था मामला।
20 नवंबर 1980 को इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य पेज़ पर एक ख़बर छपी थी जिसका टाइटल 'आईज पंक्चर्ड ट्वाइस टू इंश्योर ब्लाइंडनेस' था इस ख़बर से पूरा देश दहल गया। ख़बर में लिखा था कि जबलपुर की जेल में 33 अंडर ट्रायल कैदियों की टकवे से आंखों को फोड़कर तेज़ाब डाल दिया गया जिसे उन्होंने 'गंगाजल' का नाम दिया। कैदियों ने अपने दिए गए बयान में बताया था कि पुलिसवालों ने उन्हें बांध कर उनकी आंखें फोड़ दी और फिर उसमें तेज़ाब डाल दिया। इतना ही नही एक डॉक्टर जोकि पुलिसकर्मियों ने बुलाया था उसने उन कैदियों की आंखों को फिर से फोड़ डाला था जिन्हें थोड़ा बहुत दिख रहा है, सिर्फ़ ये पक्का करने के लिए की कैदी पूरी तरह अंधे हुए हैं या नही।
ख़बर आग की तरफ फैल गयी प्रशासन सकते में आ गया। ख़बर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ जग्गनाथ मिश्रा और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंची। जिसके बाद जांच कनेटी बनाई गई।
कानून व्यवस्था बनी रहे के नाम पर आंखें फोड़ी।
जांच करने पर पाया गया था कि पुलिसकर्मियों के साथ वहां की आम जनता भी इस कांड में शामिल थी। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि पीड़तों को तथाकथित न्याय मिल सके। जांच के बाद पुलिसकर्मियों को सस्पेंड किया गया तो जबलपुर की आम जनता सड़कों पर आ गई थी।
इतना ही नही बिहार पुलिस के उच्चाधिकारियों को भी इस घटना का पहले से पता था। कानून व्यवस्था बनाई रखी जा सके ये कहकर मामले को दबाया गया था। बताया जाता है कि जग्गनाथ मिश्रा के मंत्रिमंडल में भी किसी मंत्री को इस बात की भनक थी कि पिछले चार महीनों से कैदियों को अंधा किया जा रहा है।
कार्रवाई नही करने पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया।
जुलाई 1980 में तत्कालीन डीआईजी (ईस्टर्न रेंज) गजेंद्र नारायण ने सीआईडी इंस्पेक्टर को मामले की जांच के लिए जबलपुर भेजा। इंस्पेक्टर ने अपनी जांच में पाया कि पुलिसकर्मी योजना बनाकर संदिग्ध अपराधियों को जबरदस्ती अंधा बना रहे थे। इंस्पेक्टर ने जांच रिपोर्ट को उच्च अधिकारियों को भेज था लेकिन मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया।
मामले ने ज्यादा तूल पकड़ा तो बात सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले का संज्ञान लेते हुए इन सभी पीड़ितों की दिल्ली के अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान में जांच कराने का आदेश दिया। उसने ये भी कहा कि इन लोगों को जो शारिरिक नुकसान हुआ है उसको वापस लाने के लिए अदालत कुछ नहीं कर सकती लेकिन जिन लोगों ने ऐसा किया है उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए ताकि इस तरह की क्रूरता भविष्य में कभी न दोहराई जाए।
इसके बाद उसने 15 पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया। लेकिन तीन महीनों के अंदर ही हर एक व्यक्ति का निलंबन आदेश वापस ले लिया गया। कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला भर किया गया। उस अफ़सर को जो भागलपुर शहर का एसपी था, रांची का एसपी बना दिया गया. एक और व्यक्ति जो भागलपुर ज़िले का एसपी था उसे मुज़फ़्फ़रपुर का एसपी बना दिया गया।
नेत्रहीन बंदियों को जीवनयापन के लिए पेंशन दी गयी।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस पूरे प्रकरण पर गहरा दुख प्रकट करते हुए कहा था कि वो इस बात पर यकीन नहीं कर पा रही हैं कि आज के युग में ऐसी चीज़ भी हो सकती है। उस वक़्त केंद्र सरकार ने बिहार सरकार को निर्देश दिए कि वो पटना हाइकोर्ट से उस ज़िला जज के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का अनुरोध करे, जिसने इन नेत्रहीन बंदियों को कानूनी सहायता दिलवाने से इनकार कर दिया था। उसने ये भी घोषणा की कि अंधे किए गए 33 लोगों को 15000 रुपए की सहायता दी जाएगी और प्रत्येक नेत्रहीन कैदी को 500 रुपये प्रति महीना पेंशन दी जाएगी जिससे ये अपना जीवनयापन कर सकें।