बरगद के पेड़ पर फांसी भारतीय संस्कृति को ठेस पहुंचाना था अंग्रेजो का मकसद

भारतीय संस्कृति को ठेस पहुंचाने का मकसद था अंग्रेजों का क्रांतिकारियों को पेड़ो पर फांसी देना 
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बरगद
ब्रिटिश शासन काल के दौरान बहुत से क्रांतिकारियों को बरगद नीम पेड़ों पर फांसी देना की सोची-समझी मंशा थी इस बर्बर तरीके से उनका मकसद भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाना था परंतु उनका यह दांव उल्टा पड़ा जब यही पेड़ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्मारक बन गए

दिल्ली.    ब्रिटिश राज में भारतीय क्रांतिकारियों को बरगद पीपल नीम आदि धार्मिक सांस्कृतिक महत्व वाले पेड़ो  पर सरेआम फांसी देने के पीछे प्रत्यक्ष मंशा यही होती थी कि वे लोगों में विद्रोह की भावना खत्म करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त वे यह भी जानते थे कि बरगद व पीपल के पेड़ हिंदू ही नहीं अपितु जैन व बौद्ध धर्मों में पूजनीय, जीवनदायी व पवित्र हैं। ऐसे में जीवन का आशीर्वाद देने वाले इन वृक्षों को ही मृत्यु स्थल बना देना, क्रांतिकारियों के शवों को अंतिम संस्कार तक के लिए न सौंपना व वहीं क्षय होने तक लटके रहने देना जैसे क्रूर नियम संस्कृति पर परोक्ष हमले थे। तकलीफ सिर्फ क्रांतिकारियों के स्वजनों को ही नहीं अपितु उन वृक्षों को भी हुई। इसकी गवाह हैं उन वृक्षों के करीब लगी शिलाएं व उनसे जुड़ी कथाएं। तमाम सितम सहने के बाद ये वृक्ष आज न सिर्फ पूजनीय हैं बल्कि गौरव का भी प्रतीक है

गांव में मौजूद विशाल वृक्षों पर क्रांतिकारियों को फांसी या कच्ची फांसी की सजा देने में सबसे अधिक क्रूरता की गई गोरखपुर के बंधु सिंह के साथ। कच्ची फांसी को फांसी की सबसे दर्दनाक श्रेणी में रखा जाता था। इसमें अभियुक्त को रस्सी के सहारे तब तक लटकाया जाता है, जब तक उसका शरीर खुद गलकर नष्ट न हो जाए। चौरीचौरा के डुमरी बाबू गांव निवासी बंधु सिंह को अंग्रेजों ने 12 अगस्त, 1858 को अलीनगर स्थित एक पेड़ पर फांसी देने का सात बार प्रयास किया। कहते हैं कि उसी वक्त वहां से 25 किमी दूर देवीपुर के जंगल में बंधु सिंह के द्वारा स्थापित मां की पिंडी के बगल में खड़ा तरकुल (ताड़) के पेड़ का सिरा टूट गया और इससे खून की धारा निकल पड़ी। यहीं से इस देवी का नाम माता तरकुलहा के नाम से प्रसिद्ध है। आठवीं बार मां जगतजननी का ध्यान कर फांसी के फंदे को चूमते हुए उन्होंने देवी मां से मुक्ति मांगी और इसके बाद बंधु सिंह अमर हो गए।

स्वाधीनता समर के प्रथम नायक माने जाने वाले मंगल पांडे को आठ अप्रैल, 1857 को बैरकपुर (बंगाल) में बरगद के वृक्ष पर फांसी की सजा दी गई थी। वर्ष 1860 में बरेली में भी 257 लोगों को एक साथ बरगद के वृक्ष पर ही फांसी दे दी गई थी। ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि अंग्रेज उस दौरान सामूहिक अथवा प्रमुख क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए बरगद, पीपल, नीम जैसे वृक्षों का उपयोग कर रहे थे। यह महज संयोग नहीं था, बल्कि सोची-समझी साजिश थी। इस तरह सरेआम फांसी देने का स्पष्ट संदेश था कि लोगों में डर और नकारात्मकता का माहौल पनप सके। कई बार शवों को वृक्षों से उतारने व अंतिम संस्कार करने की भी इजाजत नहीं मिलती थी। हालांकि अंग्रेजों की यह कोशिश नाकाम हुई और डर के बजाय विद्रोह की भावना भड़क उठी। वे वृक्ष पूजनीय तो थे ही, इस तरह से प्रेरणा के स्रोत भी बनते चले गए।

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में फूलबाग चौराहा के नजदीक नानाराव पार्क में स्थित बूढ़ा बरगद 133 क्रांतिकारियों की फांसी का गवाह था। बीबीघर व सत्तीचौरा घाट के विद्रोह से गुस्साए कर्नल नील ने यहां इन क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दे दी थी। अचरज है कि उन क्रांतिकारियों का इतिहास में कोई नाम दर्ज नहीं है और लापरवाही के चलते वह बूढ़ा बरगद भी धराशायी हो चुका है। हां, उस स्थान पर बूढ़े बरगद के नए वंशज स्मृतियों को संजोए हुए हैं। इसी क्रम में दर्ज है मध्य प्रदेश के जिला मंडला का नाम, जहां दो नवंबर, 1857 को 22 लोगों को एक साथ बरगद के पेड़ में फांसी दी गई थी। डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने रामगढ़ की रानी अवंतीबाई रानी के बलिदान के बाद मंडला के जमींदार व रानी के सैन्य सलाहकार उमराव सिंह को गिरफ्तार कर उनके 21 आदिवासी साथियों के साथ फांसी दे दी थी। इस स्थान को आज बड़ चौराहा के नाम से जाना जाता है।

लखनऊ में स्वाधीनता की लड़ाई के गवाह केवल गुंबद और इमारतें ही नहीं, पेड़ भी रहे हैं। यहां की टीले वाली मस्जिद परिसर में लगे इमली के पेड़ पर सर हेनरी हैवलाक और जेम्स आउट्रम ने क्रांतिकारियों को कच्ची फांसी की सजा दी थी। इसमें मौलवी रसूल बख्श, हाफिज अब्दुल समद, मीर अब्बास, मीर कासिम अली और मम्मू खान के अलावा 35 और क्रांतिकारी शामिल थे।

28 दिसंबर, 1857 को क्रांतिकारी राजा राव बक्श सिंह समेत 200 लोगों को उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में उसी बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी गई थी, जिसे उन्होंने खुद लगाया था।

ढाका (वर्तमान बांग्लादेश) स्थित विक्टोरिया पार्क में सैकड़ों बलिदानियों को बरगद के पेड़ पर फांसी की सजा दी गई थी। इसे आज बहादुर शाह पार्क के नाम से जाना जाता है।

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